Wednesday, December 22, 2010

ये जिंदगी आज जो तुम्हारे बदन की छोटी बड़ी नसों में मचल रही है 
तुम्हारे पैरों से चल रही है ये जिंदगी
तुम्हारी आवाज में गले से निकल रही है
तुम्हारे लफ्जों  में ढल रही है ये जिंदगी
जाने कितनी  सदियों से यूँ  शक्लें बदल  रही है ये जिंदगी 
बदलती शक्लों बदलते जिस्मों में चलता फिरता ये एक शरारा
जो इस घडी नाम है तुम्हारा
इसी से सारी चहल  पहल है इसी से रोशन है हर नज़ारा
सितारे तोड़ो या घर बसाओ
अलम उठाओ या सर झुकाओ
तुम्हारी आँखों की रोशनी तक है खेल सारा
ये खेल होगा नहीं दुबारा
ये खेल होगा नहीं दुबारा
- निदा फ़ाज़ली 



Wednesday, October 20, 2010

एक युग का अवसान

कर विदा , कर विदा
मुझको अब  कर दो विदा
शायद जीने की नहीं थी
अब नयी कोई बजह
कर विदा  अब कर विदा , बे बजह अब कर विदा

एक नदी निकली थी कल जो
पर्वतों की गोद से
जल था शीतल , तेज धार
खेलती आसमान से ,
मिल गयी सागर में  देखो ,
पल में जो बहती यहाँ
कर विदा , अब कर विदा , इस नदी को कर विदा


याद है मुझको अभी तक 
गर्मियों की मीठी शाम 
एक बाग़ ढेरों फूल 
हवा में घुलता था आम
फूल खिलते छोड़कर 
माली गया जाने किधर
कर विदा , अब कर विदा उस माली को कर विदा